Wednesday, May 24, 2023

Importance of self-belief and the power of the mind

 In the Bhagavad Gita, there are several verses that emphasize the importance of self-belief and the power of the mind. These shlokas highlight the significance of self-belief, knowledge, devotion, and surrender in achieving success. They encourage individuals to recognize their inner potential and strive for self-improvement. The Bhagavad Gita emphasizes that by developing a strong connection with a higher power and cultivating positive qualities, one can transcend limitations and achieve their goals.


Bhagavad Gita 6.5:

"Let a man lift himself by himself; let him not degrade himself; for the Self alone is the friend of oneself, and the Self alone is the enemy of oneself."


Bhagavad Gita 9.22:

"To those who are constantly devoted and who engage in the welfare of others, I give the understanding by which they can come to Me."


Bhagavad Gita 9.22:

"As all surrender unto Me, I reward them accordingly. Everyone follows My path in all respects, O son of Pritha."


Bhagavad Gita 9.22:

"Those who always worship Me with exclusive devotion, meditating on My transcendental form—to them I carry what they lack, and I preserve what they have."


These shlokas emphasize the idea that one should not limit themselves and that the power of self-belief and devotion can lead to great achievements. The Bhagavad Gita teaches that by surrendering to a higher power, individuals can tap into their inner strength and overcome perceived limitations.

Friday, May 12, 2023

Seven Most Important Teachings of Gita

 The Bhagavad Gita contains many important messages that are relevant for all times and all individuals. Here are some of the most significant messages of the Gita:


1. Duty: The Gita emphasizes the importance of fulfilling one's duty or dharma, without worrying about the results. One should do one's best without being attached to the outcome.


2. Karma: The Gita emphasizes the concept of karma, which means that every action has a consequence. One's present actions determine one's future destiny, and one must accept the consequences of one's actions.


3. Self-realization: The Gita encourages individuals to seek self-realization and to recognize the divine nature of the self. One should strive to attain liberation from the cycle of birth and death by realizing one's true nature.


4. Control of the mind: The Gita emphasizes the importance of controlling the mind and the senses. One should cultivate a disciplined mind and senses in order to focus on the divine.


5. Devotion: The Gita encourages devotion to God as a means of attaining spiritual progress. One should develop a loving relationship with God and offer one's actions as a form of devotion.


6. Renunciation: The Gita teaches that true renunciation means giving up attachment to the results of one's actions, not giving up action itself. One should act without being attached to the outcome.


7. Equality: The Gita emphasizes the equality of all beings, regardless of their caste, gender, or social status. One should treat all beings with respect and compassion.


These are some of the most important messages of the Bhagavad Gita, which are still relevant today and have the power to transform individuals and societies.

Thursday, May 11, 2023

Bhagavad Gita for parenting | पालन-पोषण के लिए भगवद गीता

 पालन-पोषण के लिए भगवद गीता

भगवद गीता में धर्म के अलावा भी कई अन्य महत्वपूर्ण संदेश हैं, जो हमें पालन-पोषण करने की सलाह देते हैं।

अपने कर्तव्य का पालन करें - गीता में कहा गया है कि हमें अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, बिना किसी भय या लालच के। इससे हमें आनंद और संतुष्टि मिलती है।

कर्म करो फल की चिंता किए बिना - गीता में कहा गया है कि हमें कर्म करते रहना चाहिए, लेकिन फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमें अपने कर्मों को ईश्वर के लिए करना चाहिए, न कि अपने लाभ के लिए।

अध्यात्मिक साधना करें - गीता में अध्यात्मिक साधना करने की सलाह दी गई है। यह हमें मानसिक शांति, उन्नति और दृढ़ता देता है।

ध्यान का अभ्यास करें - गीता में ध्यान का अभ्यास करने की सलाह दी गई है। यह हमें मानसिक तनाव से छुटकारा दिलाता है और मन को शुद्ध करता है।

संतुलित जीवन व्यतीत करें - गीता में संतुलित जीवन व्यतीत करने के लिए सलाह दी गई है। हमें अपने शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर संतुलित रहना चाहिए। शारीरिक स्तर पर, हमें स्वस्थ खान-पान करना चाहिए और नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। मानसिक स्तर पर, हमें मन को शांत रखना चाहिए और स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान और मेधावी बनाने का अभ्यास करना चाहिए। आध्यात्मिक स्तर पर, हमें भगवद गीता की सीखों का अनुसरण करना चाहिए और उसे अपने जीवन में लागू करना चाहिए।

इसके अलावा, गीता में ज्ञान का महत्व भी बताया गया है। हमें निरंतर ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए और उसे व्यापक रूप से विकसित करना चाहिए। ज्ञान हमें समस्याओं के समाधान के लिए उपाय बताता है और हमें सही और उचित निर्णय लेने में मदद करता है। इसलिए, गीता हमें जीवन के सभी क्षेत्रों में संतुलित रहने और सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए नेतृत्व करती है।

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || 2.62||
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 6.5॥


अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: | दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् || 16.1||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || 16.2||
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता | भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || 16.3||

ये श्लोक भगवद गीता के हैं जो ध्यान, आत्म-निरीक्षण और आध्यात्मिक विकास की महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

2.62 श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति विषयों पर ध्यान देता है, उसमें लगा रहता है, और फिर उस समूह से आसक्त होता है, उसे उस समूह में उत्पन्न होने वाली इच्छाएं प्राप्त होती हैं, जो उसे क्रोध में धकेल देती हैं। इसलिए जीते हुए व्यक्ति को अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना चाहिए।

6.5 श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा को अपनी आत्मा से ही उद्धार करता है, वह अपने आप को निराश नहीं करता है। आत्मा ही एक व्यक्ति के दोस्त और शत्रु होती है।

16.1-16.3 श्लोकों में बताया गया है कि जो व्यक्ति सत्त्व, शुद्धि, ज्ञान और योग के आधार पर स्थिर है, वह दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सत्य, अहिंसा, क्रोध रहित होना, दया, मार्दव, अहंकार रहित होना, तेज, क्षमा, धैर्य, शुचि और अपन को वश में करने के लिए इन गुणों का संग्रह बताया गया है। ये पांच गुण संसार में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं और उन्हें व्यक्ति के आचरण में लाने से उसे अधिक समृद्ध, सफल, और सुखी बनाया जा सकता है।

तेज - तेज का अर्थ होता है उज्ज्वलता और ऊर्जा। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति को सक्षमता मिलती है अपने लक्ष्य को हासिल करने की।

क्षमा - क्षमा का अर्थ होता है क्षमा करना यानि दूसरों के दोषों को माफ करना। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति में एक ऊर्जा उत्पन्न होती है जो उसे दूसरों के गुणों को देखने में मदद करती है।

धैर्य - धैर्य का अर्थ होता है स्थिरता या सहनशीलता। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति को विपत्तियों और आपदाओं के सामना करने की क्षमता मिलती है।

शुचि - शुचि का अर्थ होता है पवित्रता। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति के मन में एक शुद्धता की भावना उत्पन्न होती है जो उसे अपनी आत्मा को उन्नत करने में जीवन उन्नति के लिए आत्म-विकास बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए व्यक्ति को अपनी आत्मा को समझने और उसे उन्नत करने के लिए उचित दिशा में ले जाना आवश्यक होता है। इसके लिए व्यक्ति को ध्यान और मेधा वृत्ति विकसित करनी होती है जो उसे आत्मा के समझने और उसे स्वयं में विकसित करने में मदद करती है। व्यक्ति को अपनी निजता के प्रति भावनाओं का समानवित बनाना चाहिए और जीवन की उन्नति के लिए समर्पित होना चाहिए।

आत्मा के उन्नति के लिए धर्म, अध्ययन, साधना, सेवा, समाज सेवा, दान, दया आदि अनेक उपाय होते हैं जो उसे अपनी आत्मा को समझने और उसे उन्नत करने में मदद करते हैं। इसके अलावा, ध्यान और मेधा वृत्ति विकसित करना भी बहुत महत्वपूर्ण होता है जो आत्मा के समझने और उसे स्वयं में विकसित करने में मदद करता है।



भगवद गीता में पालन-पोषण से संबंधित कई संदेश हैं। यह एक ज्ञान का ग्रंथ है जो एक उच्चतर और समर्पित जीवन जीने के लिए उपयोगी है। निम्नलिखित भावनाओं को जीवन में अपनाने से, आप एक अधिक समृद्ध और संतुष्ट जीवन जी सकते हैं:

1. कर्म का फल भोग न करें: भगवद गीता का एक महत्वपूर्ण सन्देश है कि हमें कर्म करना चाहिए, लेकिन हमें कर्म के फलों से आसक्त नहीं होना चाहिए। फल भोग से हमें अधिकांश दुख होता है।

2. आपका कर्म आपकी जिम्मेदारी है: आपको अपने कर्मों की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए। आप अपने कर्मों को अपने लक्ष्य और मूल्यों के अनुसार चुनें।

3. विषयों पर आसक्त न हों: जब हम विषयों पर आसक्त होते हैं, तब हम अपने शरीर और मन के लिए दुख उत्पन्न करते हैं। हमें शांत और स्थिर मन को बनाए रखना चाहिए।

4. ध्यान देना चाहिए: ध्यान देने से हमारा मन शांत होता है और हमें अपने जीवन में सफलता मिलती है। ध्यान देने से हम अपने विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं और सकारात्मक सोच को विकसित कर सकते हैं। भगवद गीता में ध्यान को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। ध्यान द्वारा हम अपने मन को एक विषय पर केंद्रित करते हुए उसकी गहराई को समझ सकते हैं। ध्यान की प्रक्रिया में हम धीरे-धीरे अपने मन को शांत करते हुए उसे एक स्थिर स्थान पर ले जाते हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा हम अपने मन को शुद्ध कर सकते हैं और विचारों को संतुलित कर सकते हैं। ध्यान देने से हमें अधिक समझ मिलती है और हम अपने आप को उन चीजों से अलग कर सकते हैं जो हमें फिर से दुखी करती हैं।

QA: क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ


भगवद गीता में उल्लेखित "क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" दोनों ही संसार के विषय में बात करते हुए उपयोग में लाए गए शब्द हैं। "क्षेत्र" शब्द संसार का शारीरिक रूप बताता है जो कि जीवात्मा के निवास स्थान के समान होता है। जबकि "क्षेत्रज्ञ" शब्द जीवात्मा के स्वरूप और उसकी ज्ञान शक्ति को बताता है। 

इस शब्दार्थ के साथ, भगवद गीता में क्षेत्र को शरीर और क्षेत्रज्ञ को आत्मा के समान भी बताया जाता है। जब हम कर्म करते हैं तो हम अपने क्षेत्र को यानि अपने शरीर को क्रियाशील करते हैं। इसके साथ ही हम क्षेत्रज्ञ भी होते हैं, अर्थात हम अपने आत्मा को ज्ञान और अज्ञान के साथ संबोधित करते हुए उसके स्वरूप और धर्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं। 

इस तरह, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों ही आत्मा के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए हमें संसार के विषय में उचित ज्ञान प्रदान करते हैं।

इस शरीर को क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस शरीर को दोनों का सत्य जानने वाले ऋषियों के माध्यम से जान जाता है उसे क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) कहा जाता है।

अत्यंत सारल भाषा में समझाने के लिए, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ इस प्रकार है:

- क्षेत्र: यह शरीर को जिसमें कर्म किया जाता है उसे दर्शाता है। यहां पर, शरीर को एक खेत्र के समान देखा जाता है जिसमें कर्म किया जाता है।

- क्षेत्रज्ञ: इसका अर्थ है जो व्यक्ति इस क्षेत्र में अपने कर्म करता है, उसको जानता है। वह जानता है कि कौन से कर्म करने चाहिए और कौन से नहीं। वह अपने कर्मों के फलों के बारे में भी जानता है।

इस प्रकार, क्षेत्र शरीर को और क्षेत्रज्ञ व्यक्ति को दर्शाता है जो शरीर में कर्म करता है। यह संबंध भगवद गीता में ज्ञानी पुरुष के अर्थ में महत्वपूर्ण होता है।

महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण

 महाभारत युद्ध में कई कारण थे, लेकिन मुख्य कारण कौरवों की अधिक महत्वाकांक्षाओं और धृतराष्ट्र के पुत्र मोह के कारण था। कौरवों और पांडवों के बीच विवाद शुरू हुआ जब भीष्म पितामह ने अंतिम समय पांडु के पुत्रों को राज्य का अधिकार देने की सलाह दी, लेकिन कौरवों ने इसे मना कर दिया। यह विवाद बढ़ता गया और युद्ध जैसे अंतिम समाधान में समाप्त हुआ।

Kurukshetra war कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध था जो महाभारत काल में लड़ा गया था। इस युद्ध में पांडव और कौरव दोनों ओर से सैन्य समूह शामिल थे। पांडव ने युद्ध के पहले दिन दुर्योधन से मिलकर शांति का प्रस्ताव किया था, लेकिन दुर्योधन ने उनका इस्तेमाल करते हुए उनसे समझौते की मांग की जो अनुचित थी।

युद्ध के दूसरे दिन पांडवों ने अपनी योग्यता का परिचय दिया जब उन्होंने दुर्योधन को विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध करने का सुझाव दिया। धृतराष्ट्र के दूत संजय के माध्यम से दुर्योधन ने यह संदेश भेजा कि वह संघर्ष की अधिक इच्छुक नहीं है और इस युद्ध को विराट कल्याण का कारण नहीं बनाना चाहता है। उन्होंने पांडवों को उनकी समझ से वकील के रूप में यह समझाया कि वे युद्ध से बचें और राज्य का विभाजन कर दें।

पांडवों ने इस प्रस्ताव का अस्वीकार कर दिया और युद्ध जारी रखने का फैसला किया|

धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने सन्धि का प्रस्ताव रखा था, जिसे पांडव ने अस्वीकार कर दिया था। पांडव ने युद्ध जारी रखने का फैसला किया था। उन्होंने युद्ध के लिए अपने अधिकारों का लड़ाई लड़ना उचित समझा था, जिसका परिणाम युद्ध का हुआ था।

सगुणरूप परमेश्वर को और अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

 अर्जुन बोलेः जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार निरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं – उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?



भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि दोनों प्रकार के उपासक समान उत्तम हैं, क्योंकि वे दोनों ही भक्ति के मार्ग से उन्नति की ओर जा रहे हैं। दोनों प्रकार के उपासक अपनी अपनी अवस्था में अत्यंत उत्तम होते हैं।

जो भक्त आपके सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे उनके सामने उनकी साकार विश्वरूप की प्रतीक्षा में होते हैं और उन्हें उनके प्रियतम के साथ सांगोपांग से भजन करने का सौभाग्य मिलता है। वे अपने आप को उनके प्रियतम से सम्बोधित करते हुए उन्हें प्राप्त करने की चाह में होते हैं।

दूसरे हाथ, जो उपासक केवल निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं, वे अपनी मन की स्थिरता एवं एकाग्रता की प्राप्ति के माध्यम से अपने मन को निर्मल बनाकर अनंत ज्ञान को प्राप्त करते हैं। वे सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म की आध्यात्मिक अनुभूति करते हैं।

इसलिए, जो उपासक अपने मन को स्थिर एवं एकाग्रत करके उस एक अनंत ज्ञान को प्राप्त करते हैं, वे अत्यंत उत्तम योगवेत्ता होते हैं। योग अर्थात समझौता करना उस दिव्य अवस्था को कहते हैं जिसमें उपासक अपने मन को वश में करते हुए ईश्वर या ब्रह्म की प्राप्ति करते हैं। योगी अपनी आत्मा के साथ एकीभव होते हुए अनंत ज्ञान की प्राप्ति करते हैं।

लेकिन, जो उपासक आपके सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे भी अत्यंत उत्तम भक्त होते हैं जो उन्नति के मार्ग पर जा रहे हैं। वे भक्ति के मार्ग से आपके प्रति आसक्त होते हैं और उन्हें आपके साथ एक सांगोपांग रिश्ता होता है। वे आपके गुणों का गुणगान करते हुए अपने मन को शुद्ध करते हैं और आपकी सेवा में अपना समय देते हैं।

इसलिए, दोनों प्रकार के उपासक समान उत्तम होते हैं। यह उन्हें अपने अपने उद्देश्य तक पहुंचाता है, जो उन्हें उन्नति के मार्ग पर ले जाता है।

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