पालन-पोषण के लिए भगवद गीता
भगवद गीता में धर्म के अलावा भी कई अन्य महत्वपूर्ण संदेश हैं, जो हमें पालन-पोषण करने की सलाह देते हैं।
अपने कर्तव्य का पालन करें - गीता में कहा गया है कि हमें अपने कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, बिना किसी भय या लालच के। इससे हमें आनंद और संतुष्टि मिलती है।
कर्म करो फल की चिंता किए बिना - गीता में कहा गया है कि हमें कर्म करते रहना चाहिए, लेकिन फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमें अपने कर्मों को ईश्वर के लिए करना चाहिए, न कि अपने लाभ के लिए।
अध्यात्मिक साधना करें - गीता में अध्यात्मिक साधना करने की सलाह दी गई है। यह हमें मानसिक शांति, उन्नति और दृढ़ता देता है।
ध्यान का अभ्यास करें - गीता में ध्यान का अभ्यास करने की सलाह दी गई है। यह हमें मानसिक तनाव से छुटकारा दिलाता है और मन को शुद्ध करता है।
संतुलित जीवन व्यतीत करें - गीता में संतुलित जीवन व्यतीत करने के लिए सलाह दी गई है। हमें अपने शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर संतुलित रहना चाहिए। शारीरिक स्तर पर, हमें स्वस्थ खान-पान करना चाहिए और नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। मानसिक स्तर पर, हमें मन को शांत रखना चाहिए और स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान और मेधावी बनाने का अभ्यास करना चाहिए। आध्यात्मिक स्तर पर, हमें भगवद गीता की सीखों का अनुसरण करना चाहिए और उसे अपने जीवन में लागू करना चाहिए।
इसके अलावा, गीता में ज्ञान का महत्व भी बताया गया है। हमें निरंतर ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए और उसे व्यापक रूप से विकसित करना चाहिए। ज्ञान हमें समस्याओं के समाधान के लिए उपाय बताता है और हमें सही और उचित निर्णय लेने में मदद करता है। इसलिए, गीता हमें जीवन के सभी क्षेत्रों में संतुलित रहने और सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए नेतृत्व करती है।
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || 2.62||
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 6.5॥
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: | दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् || 16.1||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् || 16.2||
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता | भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || 16.3||
ये श्लोक भगवद गीता के हैं जो ध्यान, आत्म-निरीक्षण और आध्यात्मिक विकास की महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
2.62 श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति विषयों पर ध्यान देता है, उसमें लगा रहता है, और फिर उस समूह से आसक्त होता है, उसे उस समूह में उत्पन्न होने वाली इच्छाएं प्राप्त होती हैं, जो उसे क्रोध में धकेल देती हैं। इसलिए जीते हुए व्यक्ति को अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना चाहिए।
6.5 श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा को अपनी आत्मा से ही उद्धार करता है, वह अपने आप को निराश नहीं करता है। आत्मा ही एक व्यक्ति के दोस्त और शत्रु होती है।
16.1-16.3 श्लोकों में बताया गया है कि जो व्यक्ति सत्त्व, शुद्धि, ज्ञान और योग के आधार पर स्थिर है, वह दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सत्य, अहिंसा, क्रोध रहित होना, दया, मार्दव, अहंकार रहित होना, तेज, क्षमा, धैर्य, शुचि और अपन को वश में करने के लिए इन गुणों का संग्रह बताया गया है। ये पांच गुण संसार में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं और उन्हें व्यक्ति के आचरण में लाने से उसे अधिक समृद्ध, सफल, और सुखी बनाया जा सकता है।
तेज - तेज का अर्थ होता है उज्ज्वलता और ऊर्जा। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति को सक्षमता मिलती है अपने लक्ष्य को हासिल करने की।
क्षमा - क्षमा का अर्थ होता है क्षमा करना यानि दूसरों के दोषों को माफ करना। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति में एक ऊर्जा उत्पन्न होती है जो उसे दूसरों के गुणों को देखने में मदद करती है।
धैर्य - धैर्य का अर्थ होता है स्थिरता या सहनशीलता। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति को विपत्तियों और आपदाओं के सामना करने की क्षमता मिलती है।
शुचि - शुचि का अर्थ होता है पवित्रता। इस गुण का संग्रह करने से व्यक्ति के मन में एक शुद्धता की भावना उत्पन्न होती है जो उसे अपनी आत्मा को उन्नत करने में जीवन उन्नति के लिए आत्म-विकास बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए व्यक्ति को अपनी आत्मा को समझने और उसे उन्नत करने के लिए उचित दिशा में ले जाना आवश्यक होता है। इसके लिए व्यक्ति को ध्यान और मेधा वृत्ति विकसित करनी होती है जो उसे आत्मा के समझने और उसे स्वयं में विकसित करने में मदद करती है। व्यक्ति को अपनी निजता के प्रति भावनाओं का समानवित बनाना चाहिए और जीवन की उन्नति के लिए समर्पित होना चाहिए।
आत्मा के उन्नति के लिए धर्म, अध्ययन, साधना, सेवा, समाज सेवा, दान, दया आदि अनेक उपाय होते हैं जो उसे अपनी आत्मा को समझने और उसे उन्नत करने में मदद करते हैं। इसके अलावा, ध्यान और मेधा वृत्ति विकसित करना भी बहुत महत्वपूर्ण होता है जो आत्मा के समझने और उसे स्वयं में विकसित करने में मदद करता है।
भगवद गीता में पालन-पोषण से संबंधित कई संदेश हैं। यह एक ज्ञान का ग्रंथ है जो एक उच्चतर और समर्पित जीवन जीने के लिए उपयोगी है। निम्नलिखित भावनाओं को जीवन में अपनाने से, आप एक अधिक समृद्ध और संतुष्ट जीवन जी सकते हैं:
1. कर्म का फल भोग न करें: भगवद गीता का एक महत्वपूर्ण सन्देश है कि हमें कर्म करना चाहिए, लेकिन हमें कर्म के फलों से आसक्त नहीं होना चाहिए। फल भोग से हमें अधिकांश दुख होता है।
2. आपका कर्म आपकी जिम्मेदारी है: आपको अपने कर्मों की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए। आप अपने कर्मों को अपने लक्ष्य और मूल्यों के अनुसार चुनें।
3. विषयों पर आसक्त न हों: जब हम विषयों पर आसक्त होते हैं, तब हम अपने शरीर और मन के लिए दुख उत्पन्न करते हैं। हमें शांत और स्थिर मन को बनाए रखना चाहिए।
4. ध्यान देना चाहिए: ध्यान देने से हमारा मन शांत होता है और हमें अपने जीवन में सफलता मिलती है। ध्यान देने से हम अपने विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं और सकारात्मक सोच को विकसित कर सकते हैं। भगवद गीता में ध्यान को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। ध्यान द्वारा हम अपने मन को एक विषय पर केंद्रित करते हुए उसकी गहराई को समझ सकते हैं। ध्यान की प्रक्रिया में हम धीरे-धीरे अपने मन को शांत करते हुए उसे एक स्थिर स्थान पर ले जाते हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा हम अपने मन को शुद्ध कर सकते हैं और विचारों को संतुलित कर सकते हैं। ध्यान देने से हमें अधिक समझ मिलती है और हम अपने आप को उन चीजों से अलग कर सकते हैं जो हमें फिर से दुखी करती हैं।