भगवद् गीता का अध्याय १५ "पुरुषोत्तमयोग" के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय में भगवान कृष्ण परमात्मा के रूप, महत्त्व और अधिकार के बारे में बताते हुए उनसे सम्बंधित ज्ञान को समझाते हैं। भगवान कृष्ण यहां बताते हैं कि संसार के समस्त प्राणियों का मूल रूप परमात्मा ही होता है और उन्हें जानना चाहिए कि परमात्मा सबके अंतर्यामी होते हुए उनसे भिन्न और अभिन्न दो रूपों में प्रकट होते हैं। वह संसार में विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, परन्तु वह इन सबके अतिरिक्त एकमात्र अविनाशी आत्मा ही होता है। इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने संसार के चक्र के बारे में भी बताया है। उन्होंने बताया कि जीवात्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से प्रभावित होता है और इस चक्र से मुक्त होकर वह परमात्मा के साथ एकीकृत हो जाता है। इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने भक्ति के महत्व को बताते हुए कहा है कि जो भक्त उनके साथ भगवद् भाव में लगे रहते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित है। भगवान ने यह भी बताया कि वही जीव संसार में दुखों से मुक्त हो सकता है, जो उनकी शरण में आता है और उनका सेवन करता है। वह भगवान का भक्त होता है और भगवान उसे अपने साथ लीन कर लेते हैं। भगवान कृष्ण ने इस अध्याय में भक्ति की उच्चता और महत्व को बताया है।
।। अथ पंचदशोऽध्यायः ।।
श्री भगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।1।।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।2।।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।3।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।4।।
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छ्नत्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।5।।
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।6।।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।7।।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।8।।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।9।।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।10।।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्य्नत्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्य्नत्यचेतसः ।।11।।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।।12।।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।13।।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।14।।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।15।।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।18।।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।।19।।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमा्नस्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।20।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः ।।15।।
No comments:
Post a Comment