अर्जुन बोलेः जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार निरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं – उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि दोनों प्रकार के उपासक समान उत्तम हैं, क्योंकि वे दोनों ही भक्ति के मार्ग से उन्नति की ओर जा रहे हैं। दोनों प्रकार के उपासक अपनी अपनी अवस्था में अत्यंत उत्तम होते हैं।
जो भक्त आपके सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे उनके सामने उनकी साकार विश्वरूप की प्रतीक्षा में होते हैं और उन्हें उनके प्रियतम के साथ सांगोपांग से भजन करने का सौभाग्य मिलता है। वे अपने आप को उनके प्रियतम से सम्बोधित करते हुए उन्हें प्राप्त करने की चाह में होते हैं।
दूसरे हाथ, जो उपासक केवल निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं, वे अपनी मन की स्थिरता एवं एकाग्रता की प्राप्ति के माध्यम से अपने मन को निर्मल बनाकर अनंत ज्ञान को प्राप्त करते हैं। वे सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म की आध्यात्मिक अनुभूति करते हैं।
इसलिए, जो उपासक अपने मन को स्थिर एवं एकाग्रत करके उस एक अनंत ज्ञान को प्राप्त करते हैं, वे अत्यंत उत्तम योगवेत्ता होते हैं। योग अर्थात समझौता करना उस दिव्य अवस्था को कहते हैं जिसमें उपासक अपने मन को वश में करते हुए ईश्वर या ब्रह्म की प्राप्ति करते हैं। योगी अपनी आत्मा के साथ एकीभव होते हुए अनंत ज्ञान की प्राप्ति करते हैं।
लेकिन, जो उपासक आपके सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे भी अत्यंत उत्तम भक्त होते हैं जो उन्नति के मार्ग पर जा रहे हैं। वे भक्ति के मार्ग से आपके प्रति आसक्त होते हैं और उन्हें आपके साथ एक सांगोपांग रिश्ता होता है। वे आपके गुणों का गुणगान करते हुए अपने मन को शुद्ध करते हैं और आपकी सेवा में अपना समय देते हैं।
इसलिए, दोनों प्रकार के उपासक समान उत्तम होते हैं। यह उन्हें अपने अपने उद्देश्य तक पहुंचाता है, जो उन्हें उन्नति के मार्ग पर ले जाता है।
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