क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ
भगवद गीता में उल्लेखित "क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" दोनों ही संसार के विषय में बात करते हुए उपयोग में लाए गए शब्द हैं। "क्षेत्र" शब्द संसार का शारीरिक रूप बताता है जो कि जीवात्मा के निवास स्थान के समान होता है। जबकि "क्षेत्रज्ञ" शब्द जीवात्मा के स्वरूप और उसकी ज्ञान शक्ति को बताता है।
इस शब्दार्थ के साथ, भगवद गीता में क्षेत्र को शरीर और क्षेत्रज्ञ को आत्मा के समान भी बताया जाता है। जब हम कर्म करते हैं तो हम अपने क्षेत्र को यानि अपने शरीर को क्रियाशील करते हैं। इसके साथ ही हम क्षेत्रज्ञ भी होते हैं, अर्थात हम अपने आत्मा को ज्ञान और अज्ञान के साथ संबोधित करते हुए उसके स्वरूप और धर्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
इस तरह, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों ही आत्मा के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए हमें संसार के विषय में उचित ज्ञान प्रदान करते हैं।
इस शरीर को क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस शरीर को दोनों का सत्य जानने वाले ऋषियों के माध्यम से जान जाता है उसे क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) कहा जाता है।
अत्यंत सारल भाषा में समझाने के लिए, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ इस प्रकार है:
- क्षेत्र: यह शरीर को जिसमें कर्म किया जाता है उसे दर्शाता है। यहां पर, शरीर को एक खेत्र के समान देखा जाता है जिसमें कर्म किया जाता है।
- क्षेत्रज्ञ: इसका अर्थ है जो व्यक्ति इस क्षेत्र में अपने कर्म करता है, उसको जानता है। वह जानता है कि कौन से कर्म करने चाहिए और कौन से नहीं। वह अपने कर्मों के फलों के बारे में भी जानता है।
इस प्रकार, क्षेत्र शरीर को और क्षेत्रज्ञ व्यक्ति को दर्शाता है जो शरीर में कर्म करता है। यह संबंध भगवद गीता में ज्ञानी पुरुष के अर्थ में महत्वपूर्ण होता है।
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